
‘जिस दिन महिलाओं की मजदूरी की सही कीमत आंकी जाएगी, तारीख़ की सबसे बड़ी धांधली का पर्दाफाश होगा’
भारतीय किसान यूनियन (क्रांतिकारी) की नेता सुखविंदर कौर, 57, कुछ गिनी-चुनी महिला किसान नेताओं में से एक हैं। विरोध प्रदर्शनों के बीच उनकी यात्रा आसान नहीं रही है। हाल ही में चंडीगढ़ में केंद्रीय मंत्रियों के साथ हुई बातचीत में शामिल 28-सदस्यीय किसान प्रतिनिधिमंडल में वह अकेली महिला थीं। उनका नेतृत्व केवल किसान आंदोलन तक सीमित नहीं है, दशकों से वह महिलाओं की आवाज बनी हुई हैं, और उन्हें आगे आने, अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए प्रेरित कर रही हैं। लोकमार्ग की ममता शर्मा से खास बातचीत में उन्होंने बताया कि किसान आंदोलन में महिलाओं की भूमिका क्यों महत्वपूर्ण है और साँझा किये अपनी संघर्ष भरी यात्रा के अनुभव:
आप किसान आंदोलन से कैसे जुड़ीं? कौन सा पल था जिसने आपको सक्रियता की ओर धकेला?
मेरी यात्रा छात्र जीवन से ही शुरू हुई थी। उस समय मैं छात्र राजनीति में थोड़ी सक्रिय थी, लेकिन पूरी तरह से उसमें नहीं डूबी थी। पढ़ाई भी बहुत गहराई से नहीं की, लेकिन सामाजिक और राजनीतिक घटनाओं में रुचि बनी रही। पढ़ाई पूरी करने के बाद मेरी शादी हो गई, और उसके बाद मैंने किसान आंदोलन से जुड़ना शुरू किया। साल 1991 में मैंने किसानों के मुद्दों को समझना और सक्रिय रूप से भाग लेना शुरू किया। उस समय मैं किसी नेतृत्वकारी भूमिका में नहीं थी, बल्कि गांव-गांव जाकर महिलाओं को इकट्ठा करती थी, उन्हें कार्यक्रमों और विरोध प्रदर्शनों में ले जाती थी। मेरा काम बस यही था कि महिलाओं को आंदोलन से जोड़ सकूं, ताकि वे भी अपनी आवाज़ उठा सकें।
किसानों की प्रमुख समस्याओं में से एक सरकार की नीतियाँ थीं, जो सीधे उनकी ज़मीन और जीविका पर प्रभाव डाल रही थीं। सरकार ने जो समझौते किए थे, वे किसानों के लिए बहुत नुकसानदायक साबित हो सकते थे, लेकिन उस समय गाँवों में इस खतरे की गंभीरता को समझने वाले बहुत कम लोग थे। किसानों को लगता था कि उनकी ज़मीन सुरक्षित है और वे अपने भविष्य को लेकर निश्चिंत थे।
लेकिन असलियत कुछ और थी। कई किसानों पर भारी कर्ज था और बैंकों द्वारा ज़मीन की कुर्की की धमकियाँ दी जा रही थीं। जब भी कोई कुर्की का मामला सामने आता, हम सब मिलकर अधिकारियों का सामना करते और ज़मीन जब्त होने से रोकते। पंजाब में हमने कई ज़मीनों को कुर्की से बचाया और यह संघर्ष जारी रहा। कृषि पंजाब की रीढ़ की हड्डी है, और इसका व्यापक असर पूरे समाज पर पड़ता है। 50% से अधिक लोग अभी भी खेती से जुड़े हुए हैं, और शहरीकरण के बावजूद, खेती ही मुख्य आय का स्रोत बनी हुई है। यहाँ तक कि हाल के वर्षों में, विशेष रूप से COVID-19 के बाद, शहरों से गाँवों की ओर लोगों का पलायन देखने को मिला। नौकरीपेशा लोग, जो कभी अपने बच्चों को शहरों में अच्छी शिक्षा और रोजगार देने की उम्मीद में आए थे, अब वापस गाँवों की ओर लौट रहे हैं, क्योंकि नौकरियों की अनिश्चितता बढ़ गई है।
किसान आंदोलन में महिलाओं की भूमिका क्या रही है, और समय के साथ इसमें क्या बदलाव आए हैं?
किसान आंदोलन में महिलाओं की भूमिका समय के साथ लगातार विकसित हुई है। शुरुआती दिनों में उनकी नेतृत्व भूमिका सीमित थी—वे विरोध प्रदर्शनों में शामिल तो होती थीं, लेकिन ज़िम्मेदारी पुरुषों के पास ही रहती थी। हमने महिलाओं को नेतृत्व में लाने की कोशिश की, लेकिन यह बदलाव धीरे-धीरे आया। गाँवों की बुजुर्ग महिलाएँ सामाजिक परिवर्तन के लिए उतनी तत्पर नहीं थीं, और पारंपरिक सोच के कारण महिलाओं के लिए स्वतंत्र मंच बनाना आसान नहीं था। फिर भी, महिलाओं को संगठित करने के प्रयास किए गए, और अलग से महिला संगठन भी बने, हालांकि उनका प्रभाव सीमित रहा। लेकिन धीरे-धीरे उनकी सोच में बदलाव आया, और आज हम देख सकते हैं कि बड़ी संख्या में महिलाएँ आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग ले रही हैं।
पिछले 10-15 वर्षों में समाज की मानसिकता में बड़ा परिवर्तन आया है। पहले लड़कियों की शिक्षा और करियर को सीमित दायरे में देखा जाता था—उन्हें अधिकतर टीचर या नर्स बनने तक ही सीमित कर दिया जाता था। लेकिन आज वे विदेशों तक जा रही हैं, आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो रही हैं, और अपने परिवारों का समर्थन कर रही हैं। जब विदेशों में सफल हुई बेटियाँ अपने घर पैसे भेजती हैं, तो उनकी बातें सुनी जाने लगती हैं, जिससे समाज में महिलाओं की स्थिति मजबूत हुई है और वे आत्मनिर्भर महसूस करने लगी हैं।
किसान आंदोलन भी इस बदलाव का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना। पारंपरिक रूप से घर तक सीमित रहने वाली महिलाएँ भी आंदोलनों में सक्रिय रूप से सामने आईं। ज़मीन उनके नाम पर न होने के बावजूद, उनका जीवन और परिवार कृषि पर निर्भर था, इसलिए यह संघर्ष उनके लिए केवल किसानों का आंदोलन नहीं था, बल्कि खुद को सशक्त करने और अपनी आवाज़ बुलंद करने का अवसर भी था। महिलाओं ने मीडिया के सामने अपनी बात रखी, रैलियों में भाग लिया, और एकजुटता का प्रदर्शन किया। यह सिर्फ़ किसान आंदोलन नहीं था, बल्कि पूरे समाज का संघर्ष था, जिसने पंजाब की संघर्षशील परंपरा को और मजबूत किया।
आज भी शंभू बॉर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी बनी हुई है। हालाँकि, उनकी संख्या समय के साथ बदलती रहती है—कुछ महिलाएँ आती हैं, कुछ चली जाती हैं। लेकिन विशेष अवसरों पर, जैसे 8 मार्च (अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस), उन्हें संगठित रूप से आंदोलन में शामिल करने की योजना बनाई जाती है। अनुमान है कि उस दिन हज़ारों महिलाएँ भाग लेंगी। यह दिखाता है कि वे केवल समर्थक नहीं, बल्कि नेतृत्वकर्ता भी बन रही हैं। महिलाओं की यह यात्रा आसान नहीं थी, लेकिन उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और समाज की सोच में बदलाव लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वे आज न केवल किसानों के मुद्दों पर लड़ रही हैं, बल्कि अपने हक और सम्मान के लिए भी खड़ी हो रही हैं।
एक महिला नेता के रूप में, विशेष रूप से पुरुष प्रधान आंदोलन में, आपको किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा?
हालाँकि महिलाएँ आंदोलनों और सामाजिक संघर्षों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं, लेकिन एक महिला नेता के रूप में काम करना आसान नहीं है। समाज में अभी भी पुरुष प्रधान मानसिकता हावी है। महिलाओं को अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में अधिक मेहनत करनी पड़ती है, ताकि उन्हें नेतृत्व के योग्य समझा जाए। इसके अलावा, महिलाओं के घरेलू दायित्वों को कभी भी उनके संघर्ष या योगदान का हिस्सा नहीं माना जाता। उन्हें न केवल आंदोलन में सक्रिय रहना पड़ता है, बल्कि घर और परिवार की ज़िम्मेदारियों को भी निभाना पड़ता है। यही कारण है कि महिलाओं को दोगुनी मेहनत करनी पड़ती है, ताकि वे अपनी जगह बना सकें और अपनी आवाज़ को बुलंद कर सकें।
महिलाओं के श्रम को अक्सर गिना नहीं जाता, लेकिन जब कभी उनकी मेहनत का सही आकलन किया जाएगा, तो यह दुनिया की सबसे बड़ी चोरी पकड़ी जाएगी। शुरुआती दिनों में जब पत्रकार आते, तो वे केवल पुरुष नेताओं को शूट करते थे। मैं देखती रहती थी—वे सिर्फ़ उन महिलाओं की तस्वीरें या वीडियो बनाते थे जो थकी हुई और दयनीय हालत में नज़र आती थीं, जब वे प्रदर्शन स्थल पर काम कर रही होती थीं। कोई भी उन महिलाओं के पास नहीं जाता था जो नेतृत्व करने या अपनी बात रखने में सक्षम थीं।
यह एक अवचेतन या शायद सचेत पूर्वाग्रह था। यहाँ तक कि महिला पत्रकार भी यही करती थीं—वे महिलाओं को सिर्फ़ एक सहानुभूति के पात्र के रूप में दिखाना चाहती थीं, न कि एक सशक्त नेता के रूप में। दरअसल, अभी हाल ही में महिलाओं के लिए शौचालय की व्यवस्था की गई है। आंदोलन के शुरुआती महीनों में, मैं पूरे दिन पानी नहीं पीती थी क्योंकि वहाँ शौचालय नहीं था। मैं शाम तक इंतजार करती थी. मेरी एक चिकित्सीय स्थिति है, जिसकी वजह से मैं ज़मीन पर नहीं बैठ सकती। लेकिन यह कभी भी मुझे अपने संघर्ष से पीछे हटने के लिए हतोत्साहित नहीं करता।
यह उन कई, छोटी या बड़ी, चुनौतियों में से एक है, जिनका महिला प्रदर्शनकारियों को सामना करना पड़ता है।

आज भी आपको इस आंदोलन को जीवित रखने के लिए क्या प्रेरित करता है?
मैंने जीवन में कई मुश्किलात का सामना किया है। जब मैं पैदा हुई थी, तो मेरे अस्तित्व को लेकर सवाल उठाए गए थे। लेकिन मेरे पिता, जो शिक्षित थे, उन्होंने मेरा साथ दिया और कहा कि उन्हें अपनी बेटी चाहिए। मेरे चेहरे पर एक जन्मचिह्न था।, जिसे देखकर लोग कहते थे कि मैं सुंदर नहीं दिखूंगी और मेरा भविष्य क्या होगा? मगर मेरे पिता ने मुझे बचाया और यह बात मुझसे कभी छिपाई नहीं गई। इस अनुभव ने मुझे मेहनती बनाया, और मैंने पढ़ाई को अपनी ताकत बना लिया।
कॉलेज में मैंने भगत सिंह के विचारों को पढ़ा, जिसने मुझे प्रेरित किया। मेरे सामने दो रास्ते थे—एक मेरे दादा जी का, जो स्वतंत्रता सेनानी थे और आज़ाद हिंद फौज से जुड़े थे। दूसरा मेरे नाना जी का, जो 1947 के बाद विज्ञान और रिसर्च के क्षेत्र में चले गए थे। मेरे नाना जी चाहते थे कि मैं उनके साथ रहूं और उनके काम को आगे बढ़ाऊं, लेकिन मैंने महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करने का रास्ता चुना। मेरे काम में मेरे परिवार का पूरा समर्थन था। मेरे पति ने कभी मुझे रोका-टोका नहीं। अगर मैं देर से घर लौटती, तो उन्होंने हमेशा समझदारी दिखाई और मेरा साथ दिया। यह समर्थन मेरे लिए बहुत मायने रखता था और इसने मुझे अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहने की हिम्मत दी।
उन युवतियों के लिए आपका क्या संदेश है जो सामाजिक और आर्थिक न्याय के लिए लड़ना चाहती हैं?
युवा लड़कियों और महिलाओं के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश यह है कि अगर वे कुछ करना चाहती हैं, खासकर अपनी आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए, तो समाज की बाधाओं से डरने की जरूरत नहीं है। जागरूकता बढ़ी है, लेकिन अभी भी कई महिलाओं को चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। विशेष रूप से, पंजाब और अन्य जगहों पर, जहां महिलाओं के साथ अन्याय और हिंसा की घटनाएं होती हैं, यह ज़रूरी है कि वे अपनी आवाज़ उठाएं और खुद को कमजोर न समझें।
महिलाओं को कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांतों पर कभी समझौता नहीं करना चाहिए:
- हिंसा सहन न करें – महिलाओं पर होने वाली घरेलू हिंसा या किसी भी तरह की शारीरिक प्रताड़ना को किसी भी कीमत पर सहन नहीं करना चाहिए। जितनी जल्दी महिलाएं इसके खिलाफ आवाज उठाती हैं, उतना ही अधिक इसका प्रभाव कम होगा। चुप रहना हिंसा को बढ़ावा देता है, इसलिए इसे रोकने के लिए बोलना बहुत जरूरी है।
- समय पर सही निर्णय लें – समाज में यह धारणा बनी हुई है कि शादी के बाद लड़की का ससुराल ही उसका अंतिम घर होता है। यह सोच कई बार महिलाओं के लिए घातक साबित होती है, क्योंकि वे खुद को ऐसी स्थितियों में फंसा पाती हैं, जहां वे निर्णय लेने में असमर्थ हो जाती हैं। माता-पिता की भी ज़िम्मेदारी है कि वे अपनी बेटियों का साथ दें और यदि जरूरत पड़े तो समय रहते उन्हें वापस अपने घर बुलाने से हिचकिचाएं नहीं।
- आत्मविश्वास और संवाद कौशल विकसित करें – महिलाओं के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि वे अपनी बात मजबूती से रखें। पंचायतों, कानूनी लड़ाइयों, या कॉर्पोरेट बोर्डरूम में, महिलाएं अक्सर अपनी बात ठीक से न रख पाने के कारण हार जाती हैं। अपनी स्थिति स्पष्ट रूप से और आत्मविश्वास के साथ प्रस्तुत करने की क्षमता बेहद महत्वपूर्ण है।
जब महिलाएं सही समय पर सही निर्णय लेती हैं, अपनी आवाज़ को बुलंद करती हैं और आत्मनिर्भर बनने की दिशा में प्रयास करती हैं, तो वे अपने जीवन में सकारात्मक बदलाव ला सकती हैं। यही बदलाव पूरे समाज के लिए भी एक मिसाल बन सकता है।



