‘भ्रष्ट्राचार का घुन हमारे पुलों, ढांचों, दरो-दीवारों को भीतर से खोखला किये जा रहा है’
अतुल सिंह गौड़, जो पेशे से एक सिविल इंजीनियर हैं, मानते है कि मुनाफा बढ़ाने या रिश्वत की भरपाई करने के लिए अक्सर महंगे रॉ मैटेरियल की चोरी की जाती है और उसकी जगह निम्न-श्रेणी के सामान का इस्तेमाल किया जाता है। जानिए ये सब कैसे हमारे इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए एक अभिशाप है:
हर मानसून में, हम आप कोई भी अख़बार उठा कर देख लीजिये, या कोई भी न्यूज़ चैनल लगा लीजिये, खबर मिलेगी कि कई राज्यों में पुल बह गए, सड़कें धंस गईं, हवाई अड्डों की छतें ढह गईं… सूची बहुत लम्बी है। एक सिविल इंजीनियर के रूप में मैं जमीनी स्तर पर निर्माण कार्य में पेशेवर रूप से शामिल रहा है, मैं आपको समझाता हूँ कि वास्तविक समस्या कहां है और कैसे इससे निबटा जा सकता है।
किसी भी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजना में एक बात आपको कॉमन मिलेगी: विभिन्न स्तरों के सरकारी अधिकारियों और निजी ठेकेदारों के बीच सांठगांठ। जरा इस प्रक्रिया को समझें: यदि एक पुल का निर्माण किया जाना है, तो मीडिया और सार्वजनिक मंचों के माध्यम से एक टेंडर आमंत्रित की जाती है और वह प्रोजेक्ट या कहें निर्माण कार्य एक मान्यता प्राप्त फर्म को सौंपा जाता है। वैसे तो सरकारी विभाग में ऐसे इंजीनियर होते हैं जो हर स्तर पर काम की निगरानी कर सकते हैं, लेकिन बिलों की निगरानी और काम को मॉनिटर के लिए एक नई कंपनी/एजेंसी को लगाया जाता है।
परियोजना में तीन स्तर शामिल हैं: निर्माण कंपनी, सरकारी अधिकारी और निगरानी एजेंसी। इससे संबंधित बाबुओं, निगरानी एजेंसी और बिल्डर के बीच अपने मुनाफे को अधिकतम करने के लिए सांठगांठ शुरू हो जाती है। इसमें सबसे पहले कच्चे माल पर होने वाली लूट को साझा किया जाता है।
इसलिए, यदि किसी विशेष आयाम के पुल के निर्माण के लिए 200 यूनिट सीमेंट बैग की आवश्यकता होती है, और निर्माता केवल 50 बैग का उपयोग करता है, तो पुल अपने उद्घाटन के 10-15 दिनों के भीतर ढह जाएगा। बिहार में ऐसा ही कुछ दिनों पहले घटित हुआ था। निर्माण कार्य में कोई जितना अधिक सीमेंट का उपयोग करेगा, संरचना की मजबूती उसी हिसाब से बढ़ेगी। लेकिन सरकार की जवाबदेही परियोजना के समय पर पूरा होने तक ही सीमित होती है। जब ऐसा कोई ढांचा ढह जाता है, तो जनता के गुस्से को शांत करने के लिए झटपट एक जांच का आदेश दिया जाता है और कुछ हफ्ते गुजरने पर वोटर लोग इसको भूल जाते है।
एक और उदाहरण लीजिये. उत्तर प्रदेश में चल रही एक ‘हर घर जल’ मिशन है और चल रही परियोजनाओं में से एक में, पाइपलाइनों की संयुक्त लंबाई 2,700 कि.मी. है। हम सभी जानते हैं कि जमीन के भीतर भूजल-स्तर बहुत नीचे चला गया है। तो, पानी खींचने के मोटर पंप, मान लीजिए, 500 फीट से अधिक की गहराई पर लगाए जाएंगे। हर घर में नल सुनिश्चित करने का उद्देश्य एक सराहनीय मिशन है और राज्य के मुख्यमंत्री स्वयं इसमें रुचि ले रहे हैं और इसकी निगरानी कर रहे हैं। लेकिन यदि आप डिजाइन से लेकर निगरानी, कार्यान्वयन और कार्य समाप्ति तक की दिशा में आगे बढ़ते हैं, तो आप देखेंगे कि इसमें शामिल अधिकारियों अधिक से अधिक जेबें भरने के लिए बड़े पैमाने पर चोरी करेंगे।
हमारी सार्वजनिक कार्य प्रणाली में भ्रष्टाचार का दीमक इस कदर पैठ गया है कि इसका इलाज नामुमकिन सा लगता है। पर एक से एक लाइलाज बीमारी को ठीक करना भी संभव है। अभी भी सुधार और संशोधन की गुंजाइश है। मेरा मानना है कि सरकार को अपनी प्रमुख परियोजनाओं को आउटसोर्स करने की पारंपरिक पद्धति को खत्म कर देना चाहिए।
उदाहरण के लिए, यूपी राज्य सेतु निगम में एक से एक प्रतिभावान, अनुभवी इंजीनियरों की भरमार है। ऐसे में किसी बाहरी व्यक्ति को पुल के डिजाइनिंग का काम सौंपने का कोई मतलब नहीं है। प्रत्येक लोक निर्माण विभाग (PWD) में बड़ी संख्या में इंजीनियर (जूनियर इंजीनियर से लेकर असिस्टेंट इंजीनियर और एग्जीक्यूटिव इंजीनियर तक) कार्यरत हैं, फिर एक बाहरी निगरानी एजेंसी क्यों नियुक्त करें?
सीधी सी बात है, आप जितने ज्यादा चक्के या पहिये एक मशीन में फिट करेंगे, उनके चलने के लिए उतना ही तेल लगेगा; ग्रीसिंग के लिए हथेलियों की संख्या बढ़ती जाएगी। हम जानते हैं कि प्रत्येक राज्य के विभागों में भ्रष्टाचार एक कोढ़ बन गया है, लेकिन राजनीतिक मंशा और ईमानदार प्रयास आसानी से इस बीमारी का इलाज कर सकते हैं।
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