खेल अधिकारी सोचते हैं कि उनकी जिम्मेदारी सिर्फ दफ्तरी घंटे पूरे करने से ख़त्म हो गई
यूपी के राष्ट्रीय स्तर के पहलवान प्रतीक पांडे का मानना है कि देश की ओलंपिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए खेल अथॉरिटीज को जमीनी स्तर पर प्रतिभाओं की पहचान करने और उन्हें तराशने की जरूरत है। उनके विचार:
जहां तक ओलंपिक में भारत के ट्रैक रिकॉर्ड की बात है तो उसके पास गर्व महसूस करने लायक कुछ भी नहीं है। पिछले 104 वर्षों की भागीदारी में, हमने कुल मिलाकर केवल 41 पदक जीते हैं; इसमें स्वर्ण पदक केवल 10 हैं जिसमे आठ तो केवल हॉकी टीम ने शुरुवाती दौर में जीते हैं ।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि पिछले 10 वर्षों में, केंद्र सरकार ने देश में खेलों के प्रशिक्षण और बुनियादी ढांचे में अपना खजाना (वित्त) खोल दिया है, लेकिन ‘खेलो इंडिया’, यूनिवर्सिटी गेम्स आदि जैसी अपनी सभी पहलों के बावजूद, असल प्रतिभाएं अभी गुमनामी के अँधेरे से बाहर नहीं आयी हैं। सदियों पुरानी चुनाव और चयन प्रक्रियाओं की वजह से अभी तक इसका लाभ नहीं उठाया जा सका है। हमारे खेल अधिकारियों का रवैया सुस्त है और वह अभी भी शनिवार-रविवार की छुट्टी के साथ 9 से 5 बजे की नौकरी वाली मानसिकता से ग्रस्त हैं। उनका मानना है की ड्यूटी के घंटे ख़त्म, और उनकी जिम्मेदारी पूरी हुई।
पूरे सरकारी तंत्र में मौजूद लालफीताशाही को जड़ से खत्म करना होगा। हाल ही में ‘लेट्स प्ले’ शीर्षक वाली एक रिपोर्ट में, नीति आयोग ने आदिवासी और ग्रामीण प्रतिभाओं को चिन्हित करने, स्कूली पाठ्यक्रम में खेल को एक विषय के रूप में शामिल करने, विश्व स्तरीय प्रशिक्षकों की भर्ती करने और सार्वजनिक निजी भागीदारी के माध्यम से खेल के बुनियादी ढांचे में सुधार करने सहित कुछ सिफारिशें कीं। ये सभी सुझाव शानदार हैं, लेकिन इनका परिणाम तभी मिलेगा जब ये प्रस्ताव फाइलों से बाहर आएंगे और वास्तविक काम में लाये जायेंगे। यदि आपको जमीनी स्तर पर प्रतिभाओं तक पहुंचने की जरूरत है, जहां पदक जीतने की संभावना है, तो मेरा पहला सुझाव एक समिति का गठन करना है जिसमें न केवल सरकारी अधिकारी बल्कि विशेषज्ञ खिलाड़ी भी शामिल हों। इस समिति के सदस्यों को न केवल अपने एसी कार्यालयों में बैठना चाहिए, बल्कि प्रतिभा की तलाश के लिए देश के ग्रामीण और उप-शहरी क्षेत्रों में भी जाना चाहिए।
प्रतिभाओं को सामने लाने के लिए दूसरी और सबसे महत्वपूर्ण सहायता प्रणाली बुनियादी ढांचा है। हालांकि पिछले 10 वर्षों में इस सरकार के प्रयास वास्तव में सराहनीय हैं, लेकिन जमीनी हकीकत में अभी इसका नतीजा कोसों दूर है। यद्यपि क्षेत्रीय स्टेडियम और खेल सुविधाएं तेजी से उभरती दिख रही हैं, मैं ऐसे कई केंद्रों/सुविधाओं का नाम बता सकता हूं जहां बुनियादी ढांचे (जैसे कि खेल उपकरण) अभी भी फाइलों के पारित होने के इंतजार में गोदामों में बंद हैं। यह एक तरह से न केवल प्रशिक्षण कार्यक्रमों में बाधा डाल रहा है बल्कि देश के युवा खिलाडियों को हतोत्साहित भी कर रहा है।
एक और महत्वपूर्ण पहलू है खिलाड़ियों के लिए मौजूदा शिकायत निवारण तंत्र के बुनियादी ढांचे का निर्माण। उदाहरण के लिए, यदि किसी एथलीट को किसी खेल की प्रक्रिया या चयन से संबंधित कोई शिकायत है, तो उसे उसी निवारण नियम का पालन करना होगा और अंततः हमारी पुरानी न्यायिक प्रणाली तक पहुंचना होगा। खेलों से जुड़ी प्रक्रियाएँ इतनी लंबी और व्यस्त होती हैं कि खिलाड़ी या तो हार मान लेता है या उसकी उम्र उस विशेष खेल के लिए निर्धारित आयु सीमा से अधिक हो जाती है। इस पर जल्द से जल्द ध्यान देने और सुधार करने की जरूरत है।
अंत में एक बात और कहना चाहूंगा, भारत के लिए खेल का मतलब क्रिकेट है और क्रिकेट का मतलब खेल है – उन देशों के विपरीत जहां ओलंपिक खेल सामाजिक जीवन का एक अभिन्न अंग हैं। भारत को विभिन्न प्रकार के खेलों को प्राथमिकता देने और उन्हें उनका सम्मान देने के लिए एक सांस्कृतिक बदलाव की भी आवश्यकता है।
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सुकृति सिंह द्वारा अनुदित