‘बीते दशक में गैर-क्रिकेट खेलों को बहुत सपोर्ट मिला है, पर मीडिया कवरेज की कमी खलती है’
भारतीय कुश्ती टीम के कोच चंद्र विजय सिंह का कहना है कि खेल संस्थाओं को आईपीएल और प्रो कबड्डी की सफलता से सीखने की जरूरत है, न कि ऐसे कम्पटीशनस से ईर्ष्या करने की। उनके विचार:
इससे पहले कि हम इस बात पर चर्चा करें कि क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों में एथलीटों को क्यों लगता है कि उनकी उपलब्धियों को कमतर समझा जाता है, मैं पहले यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि पिछले एक दशक में हमारे खिलाड़ियों के प्रशिक्षण, सुविधाओं और अवसरों में एक बड़ा बदलाव आया है। कुछ नहीं बदला है तो वह ये है कि खेल जगत अभी भी सुस्त महासंघों और मीडिया की उदासीनता से त्रस्त है। यदि भारत को एक स्पोर्टिंग नेशन बनना है और ओलंपिक खेलों को बढ़ावा देना है तो इन दोनों कमियों करने की आवश्यकता है।
मैं एक छोटी सी घटना से अपनी बात को समझाना चाहूँगा। कुछ हफ़्ते पहले, गोरखपुर में एक राष्ट्रीय कुश्ती प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था, जिसमें देश भर के नामचीन खिलाड़ियों ने भाग लिया था। मगर इस आयोजन कि खबर केवल स्थानीय — क्षेत्रीय भी भूल जाईये — समाचार पत्रों में एक या दो पैराग्राफ से ज्यादा नहीं लिखी गयी। यदि यह एक क्रिकेट कार्यक्रम होता, तो कोई शक नहीं इसे खेल चैनलों और राष्ट्रीय मीडिया पर प्रसारित किया जाता।
सौभाग्य से, कुछ बदलाव आए हैं: जैसे प्रो-कबड्डी, बैडमिंटन लीग, सॉकर लीग इत्यादि जैसी प्रतियोगिताएं शुरू हुई हैं और निजी चैनल उन्हें लाइव कवरेज दे रहे हैं। हालाँकि, यह अभी भी उस तरह की कवरेज तक नहीं पहुंच पाया है जो हमारा मीडिया छोटी क्रिकेट प्रतियोगिताओं को भी देता है। दूरदर्शन और निजी मीडिया चैनल साल में केवल सीमित समय के लिए गैर-क्रिकेट खेलों को कवर करते हैं। जहाँ उनका कवरेज बड़ा, वहीँ गैर-क्रिकेट खिलाडियों को मान्यता मिलने लगेगी।
दूसरा एक और अहम कारण है स्पॉन्सरशिप की कमी। आईपीएल के आगमन के बाद से, छोटे और क्षेत्रीय T20 टूर्नामेंटों को न केवल निजी खेल चैनलों पर प्रमुख स्थान मिल रहा है, बल्कि उन्हें बड़े प्रायोजक भी मिल रहे हैं जो आयोजन और इसके प्रचार पर जमकर खर्च करते हैं। इस दौरान, ओलंपिक खेल एक सिंपल सी प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित करने के लिए भी जूझ रहे हैं। जाहिर है, क्रिकेट की इतनी तेज गति से लोकप्रियता के लिए सरकार को दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि BCCI दुनिया में क्रिकेट की सबसे अमीर खेल संस्था है और यह सरकार के प्रति जवाबदेह नहीं है। अन्य खेल संस्थाए BCCI के पास मौजूद रकम की बराबरी नहीं कर सकते।
इसमें उन सुस्त खेल अधिकारियों को भी जोड़ लें जो अपने आरामदेह दफ्तरों से बाहर निकलने और असल नर्सरी (जैसे गांवों और छोटे शहरों) में प्रतिभाओं को तलाशने में विफल रहते हैं, और आप जान जायेंगे कि क्यों भारत अपने पापुलेशन के अनुपात में अंतरराष्ट्रीय पदक जीतने में विफल रहा है। जिन एथलीटों ने लगातार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शन किया है, चाहे वह सानिया मिर्जा, पीवी सिंधु, नीरज चोपड़ा और अन्य हों, उन्हें उचित सम्मान और पहचान मिली है।
अब एक आखिरी सच: बतौर भारतीय खेल दर्शक हमें अपनी मानसिकता बदलने और अन्य खेलों के लिए भी खुलने की जरूरत है जो हमारे खेल गौरव का हिस्सा रहे हैं। खेल महासंघों को अपनी फंडिंग बढ़ाने, सही प्रायोजकों की तलाश करने और वास्तविक प्रतिभा को बाहर निकालने के लिए पहल करनी चाहिए। यहां मैं अपनी बात कि सपोर्ट में एक उदाहरण भी देना चाहूंगा।।
प्रो कबड्डी लीग, जो कुछ साल पहले शुरू हुई, इससे हमें एक सबक लेने कि जरूरत है। यह आईपीएल की तरह सफल हुआ है और बड़ी संख्या में दर्शक इससे जुड़ रहे हैं। लीग शुरू करने से पहले आयोजकों के पास स्पष्ट रूप से एक योजना थी। अल्टीमेट खो-खो भी हाल ही में शुरू हुआ है और लोकप्रिय भी हो रहा है। अन्य खेलों और खिलाड़ियों को बढ़ावा देने और पहचान दिलाने के लिए इस तरह की और पहल समय की मांग है।
रविंद्र सिंह द्वारा अनुदित