मंदिरों की देख-रेख एक सनातन ट्रस्ट की जिम्मेदारी हो, न की सरकारों या नेताओं की
महायोगी गुरु श्री गोरक्षनाथ शोधपीठ, डीडीयू विश्वविद्यालय, गोरखपुर के रिसर्चर श्री हर्षवर्धन सिंह का कहना है कि हिंदू मंदिरों को किसी भी सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त होना चाहिए। जानिए इस मुद्दे पर उनके विचार:
तिरुमाला तीर्थ प्रसादम (लड्डू) की तैयारी में मिलावटी घी के उपयोग ने न केवल हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत किया है, बल्कि बहुसंख्यक समुदाय की आस्था और विश्वास के प्रति स्थानीय प्रशासन और राज्य सरकार के सुस्त रवैये को भी बेनकाब किया है। हिंदु धार्मिक नेताओं और समुदाय की यह लंबे समय से मांग रही है कि मंदिरों और अन्य धार्मिक स्थलों को सरकार और जिला प्रशासन के चंगुल से मुक्त कराया जाए। तिरूपति लड्डू विवाद ने एक बार फिर इस मांग को हवा दे दी है।
मुद्दा बिलकुल साफ़ है, जब अन्य धर्म अपने पूजा स्थलों और अपने दैनिक कामकाज का प्रबंधन करने के लिए स्वतंत्र हैं, तो केवल हिंदुओं को ही सरकारी बेड़ियों में क्यों जकड़े रहना चाहिए? असली वजह पैसा है. सरकारों के लिए मंदिर और तीर्थस्थल महज पैसा समेटने की मशीन हैं। उन्हें इन स्थानों पर आने वाले श्रद्धालुओं की आस्था की जरा भी परवाह नहीं है। क्या आपको लगता है कि उस मामले को इतनी आसानी से शांत किया जा सकता था अगर इसी तरह की बेअदबी किसी अन्य धर्म की मान्यताओं के साथ हुई होती, उदाहरण के लिए इस्लाम के साथ? लोग सड़कों पर उतर गए होते, सरकारी संपत्ति को तहस नहस कर दिया होता, दंगो जैसी स्थिति बन गयी होती।।
अब बात करते हैं मंदिर के प्रसाद की तैयारी की। इस पर मेरी राय ये है की किसी भी पूजा प्रतिष्ठा के खान पान को लेकर हर मंदिर या तीर्थस्थल पर स्थानीय पुजारियों की देखरेख में एक स्टैण्डर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (SOP)लागू हो जो प्रसाद तैयार करने के अनुष्ठानिक महत्व को समझते हों। पवित्र प्रसाद के साथ छेड़छाड़ को रोकने के लिए मंदिर के अन्य कार्यों को भी धार्मिक प्रोटोकॉल लागु किया जाना चाहिए। सरकार ऐसा करने में विफल है, तो उसे हट जाना चाहिए और बागडोर एक धार्मिक ट्रस्ट या बोर्ड को सौंप देनी चाहिए, जो मंदिर के अधिकारियों द्वारा उपयोग की जाने वाली और प्राप्त की जाने वाली सामग्री के कड़े निरीक्षण को लागू करेगा।
तिरूपति विवाद ने एक और बात भी नुमाया कर दी है जिसका हिन्दू परिषद् जैसे संगठन लंबे समय से विरोध करते रहे हैं। परिषद् ने कई बार मांग की है कि मंदिरों का नियंत्रण उन समितियों को दिया जाए जिनमें मंदिर के साधु-संत और पुजारी शामिल हों। हाल ही में, आंध्र प्रदेश के उपमुख्यमंत्री पवन कल्याण ने भी देश भर में मंदिरों के मामलों के प्रबंधन के लिए ‘सनातन धर्म रक्षण बोर्ड’ के गठन का आह्वान किया है। केंद्र सरकार को इन मांगों पर ध्यान देना चाहिए।
पिछली सरकार में मंदिर का संचालन करने वाले बोर्ड के सदस्यों पर एक नजर डालें तो आप पाएंगे कि इसमें सेक्युलर, नास्तिक या गैर-हिंदू शामिल थे। क्या आप गुरुद्वारे या मस्जिद के प्रबंधन में भी इसी तरह की नीति लागु कर सकते हैं? जिन लोगों को हिंदू धर्म में आस्था नहीं है, उन्हें मंदिरों के प्रबंधन के लिए बने बोर्डों का नेतृत्व या नियंत्रण क्यों चाहिए? दुनिया भर में नज़र डालें तो आपको कोई भी धार्मिक स्थल सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं मिलेगा। लेकिन अपने ही मूल देश में हिंदू आस्था को हल्के में लिया जाता है।
पूरा विवाद एक ही बात को दर्शाता है कि यह हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का एक जानबूझकर किया गया प्रयास था और अब समय आ गया है कि ऐसी घटनाएं दोबारा न हों, ऐसे कदम उठाये जाएं। हिन्दुओं के धैर्य की परीक्षा नहीं ली जानी चाहिए। मैं चाहूंगा कि इस दुर्भाग्यपूर्ण विवाद से एक सबक लिया जाए और एकजुट हो कर ये प्रयास किया जाये कि मंदिरों के रख रखाव की बागडोर साधु संत समाज या सनातन ट्रस्ट को सौंपी जाये।
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रविंद्र सिंह द्वारा अनुदित