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‘मुश्किलात किसान की जिंदगी का हिस्सा हैं, इतने लम्बे आंदोलन में हमने बहुत घाव झेले हैं, मगर पीछे हटना हमें नहीं आता’
किसान आंदोलन के बीच तमाम चुनौतियों और दमन के बावजूद, किसान मज़दूर मोर्चा (KMM) नेता गुरप्रीतसिंह संघा का हौसला अडिग है। लोकमार्ग की रिपोर्टर ममता शर्मा से बातचीत में उन्होंने बताया कि किस मुश्किल हालात में भी आंदोलनकारी डटे हुए हैं; कैसे कोई ताकत उनके आत्मविश्वास को नहीं तोड़ पाई; और क्यों वे सिर्फ जीत के लिए लड़ रहे हैं, किसी समझौते के लिए नहीं।
Q: इतनी चुनौतियों के बावजूद आपको और बाकी किसानों को इस आंदोलन को जारी रखने की प्रेरणा कहाँ से मिलती है?
धीरे धीरे हर किसान, मज़दूर और आदिवासी को समझ आ रहा है कि लड़ाई सिर्फ फसल की कीमत की नहीं है। और ना ही लड़ाई सरकार से है। अब आम किसान भी समझने लगा है की बड़ी लड़ाई किसान क़ौम/समाज और ज़मीन और नस्ल तक को बचाने की है, जाति, धर्म, भूभाग से ऊपर उठकर… और यह लड़ाई असल में कॉर्पोरेट नामक सुरसा से है। इस “डेविड बनाम गोलियथ” में रोज़ संघर्ष करते हुए हमें ख़ुद अपने देश के किसान आंदोलनों और वैश्विक स्तर पर हुए किसान मज़दूर आंदोलनों से प्रेरणा मिलती है। पब्लिक शायद नहीं समझती, लेकिन किसान यूनियन और संगठित किसान मज़दूर यह भी समझ चुका है कि यह लड़ाई “गांव” नामक इकाई को तोड़कर, वहाँ से विस्थापन करवाकर, कॉर्पोरेट को सस्ते मजदूर उपलब्ध कराने के षड्यंत्र के ख़िलाफ़ है।
इतिहास गवाह है कि जाति, धर्म, इलाकाई संघर्षों को दबा सकती हैं सरकारें अपने “फूट डालो-राज करो” के फार्मूला से, लेकिन जब क्लास-स्ट्रगल होता है, शोषित “वर्ग विशेष” संघर्ष करता है तो सरकारें हमेशा हारती रही हैं। सबसे ख़ास बात इस बार यह भी है कि हर आंदोलित व्यक्ति यह जानता है कि इस बार यह संघर्ष लंबा चलेगा और कठिन भी होगा।
सच्चाई यह भी है कि किसान मज़दूर आदिवासी का संघर्ष अब एक सतत् प्रक्रिया है, आंदोलनकारी कोई बरसाती मेंढक नहीं हैं। लेकिन जहाँ पिछला आंदोलन ज़्यादा किसान-केंद्रित था, इस बार किसान, मज़दूर, आदिवासी हितों की मांगें हमारे आधिकारिक “डिमांड चार्टर” में हैं। इस वजह से मिले हर वर्ग के समर्थन की वजह से हम और उत्साहित हैं, और आश्वस्त हैं जीत के प्रति।
Q: प्रदर्शन स्थल पर जीवन वक़्त के साथ कैसे बदला है, और आपकी रोज़मर्रा की सबसे बड़ी मुश्किलें क्या हैं?
पूरा कैलेंडर बदल गया है। पूरा एक साल हो गया है किसान आंदोलन-2 को।
जो कठिनाइयाँ इस आंदोलन में आनी थीं, वो हम चूँकि किसान आंदोलन-1 में पहले ही देख चुके थे, तो तैयार थे उन परेशानियों/मुश्किलों/चुनौतियों के लिए। साधन किसानों के अपने हैं, हर ट्राली-टेंट में खाने का राशन अपना है, आस पास के गांवों/गुरुद्वारों से अपार स्नेह के साथ साथ दूध, दही, लंगर की अटूट व्यवस्था है, सो कोई भी चुनौती असहनीय नहीं है।
हाँ, एक चुनौती जो किसान आंदोलन-2 में बड़ी है, वह है हमारी बात का एक “wider audience” यानी अधिक से अधिक लोगों तक नहीं पहुंचना। इस बार ना केवल मेनस्ट्रीम मीडिया, बल्कि इंडिपेंडेंट पत्रकारों/यूट्यूबरों का भी सरकार ने गला घोंट रखा है। सो एक साल से देश का सबसे व्यस्त और पुराना हाईवे जी टी रोड बंद है, हज़ारों किसान 3 मोर्चों पर आंदोलनरत हैं, यह तथ्य भी आमजन तक पूरे देश में नहीं पहुँचा है। और इसका इलाज “बड़ा पैसा” है, जो कि आंदोलनरत किसान संगठनों के पास नहीं है।
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एक और चुनौती है (हालांकि वो केवल किसानों/किसान आंदोलन तक सीमित नहीं है)… न्यायपालिका/जूडिशीएरी जो कभी आँखें मूँद लेती थी, कभी उदासीन थी, किसानों की पीड़ा/उनके दर्द पर, अब वो खुलके सरकार की तरफ़ से खेल रही है। हमें (भले ही यह अवमानना के दायरे में आए) यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि इस बार न्यायपालिका का रवैया किसानों के ख़िलाफ़ रहा है, और हर समय उन्होंने सरकार के पक्ष में फैसला दिया। आज न्यायपालिका स्वतंत्र होती तो सरकार घुटनों के बल आ चुकी होती और किसानों की मांगें मान चुकी होती। पिछली बार सरकार ने निरंकुशता की हदें “ख़ुद” पार नहीं की थी। लेकिन इस बार निहत्थे किसानों पर ज़हरीली एक्सपायर्ड आंसू गैस, पेलेट गन्स और यहाँ तक की घातक गोलियों का इस्तेमाल किया गया है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी आँखें मूँदकर जिम्मेदारी टालने का खेल खेला। अभी तक इस आंदोलन में 44 किसान शहीद हो चुके हैं, सैकड़ों को गंभीर चोटें आई हैं, जिनमें अस्पताल में भर्ती होने की नौबत आई। यह इस क्रूर शासन के लिए भी एक नई गिरावट है।
Q: अब भी कितने किसान सक्रिय रूप से प्रदर्शन कर रहे हैं, और आंदोलन शुरू होने के बाद से भागीदारी में क्या बदलाव आया है? अब तक कौन-कौन सी प्रमुख मांगें अधूरी हैं, और अब तक हुई बातचीत को आप कैसे आंकते हैं?
फ़िलहाल तीन मोर्चों यानी शम्भू बॉर्डर, खनौरी बॉर्डर और रतनपुरा बॉर्डर पर हज़ारों ट्रैक्टर ट्राली और टेंट लगे हैं और किलोमीटरों लंबे कैम्प हैं किसानों के। फसल के सीजन, एक्शन प्लान के हिसाब से रोज़ाना 5-7 हज़ार लोगों से लेकर खास दिनों पर लाखों कार्यकर्ता / कैडर और किसान वहाँ पूरे एक साल से मौजूद हैं। दोनों आंदोलनरत फोरम यानी किसान मज़दूर मोर्चा (KMM) और संयुक्त किसान मोर्चा (ग़ैर राजनीतिक) SKM (NP) के साथ देशभर से जुड़े छोटे बड़े क़रीब 150 संगठन/यूनियन हैं।
पिछली बार जब सरकार की गर्दन पे घुटना था किसानों का, तो सरकार ने “तीन काले क़ानूनों” को वापस लेने का तो तुरंत फ़ैसला ले लिया था, लेकिन बाक़ी मांगें पर आधिकारिक चिट्ठी लिख कर, जल्द निष्पादन का वायदा किया था। फिर 2 साल तक “किसी एक भी माँग पर” कुछ ना करने के सरकार से रवैये से ही, 13 फ़रवरी 2024 को किसान आंदोलन दोबारा शुरू करना पड़ा किसानों को।
किसान आंदोलन-2 के शुरुआत में हुई बातचीत के बाद सरकार ने पूरे एक साल तक कोई बातचीत नहीं की। अब आंदोलन को ज़ोर पकड़ते देख और स. जगजीत सिंह डल्लेवाल के अनशन से उभरे प्रेशर के चलते अब 14 फ़रवरी से फिर बात शुरू की है। लेकिन सरकारी रवैया इन सभी मीटिंगों में, आंकड़ों में उलझाने का, और बात को लटकाने का रहा है।
सबसे बड़ी माँग है “MSP” गारंटी क़ानून की और बाक़ी 9 मांगें भी हैं।
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Q: इस लंबे आंदोलन ने इसमें शामिल किसानों की आजीविका और उनके परिवारों को किस तरह प्रभावित किया है?
A: झूठ बोलने का कोई फ़ायदा नहीं। सच तो यही है कि संगठनात्मक और व्यक्तिगत तौर पर बहुत बड़ी चुनौती है, इतने निष्ठुर और निरंकुश निज़ाम से लड़ना। सरकार के “खालिस्तानी/नक्सल/विदेशी” फंडिंग वाले प्रोपेगेंडा के विपरीत, आंदोलन में शामिल हर एक शख़्स अपने/समर्थकों के दम पर लड़ रहा है। शारीरिक और मानसिक दबाव बहुत है, चूँकि सरकारें सिर्फ़ आंदोलनकारियों पर ही नहीं उनके परिजनों और समर्थकों तक पर अत्याचार कर रही है। सड़कों पर इतनी विपरीत परिस्थितियों में पड़े रहना सेहत पर भारी पड़ता है, और कई लोग इसकी वजह से शारीरिक रूप से भी टूट चुके हैं।
हालांकि रोटेशन के हिसाब से विभिन्न आंदोलनरत यूनियनों के मेम्बर आते हैं मोर्चे में, लेकिन फिर भी पीछे परिवार में उसकी वजह से दिक्कतें बहुत हैं। लेकिन चाहे पिछला आंदोलन हो या इस बार का, किसी किसान के खेत में बुआई नहीं रुकी, कटाई नहीं रुकी उसके मोर्चे में मौजूद रहने की वजह से। आसपास के पड़ोसियों ने/गाँव वालों ने संभाल लिया ज़रूरी काम पीछे से। लेकिन परिवारों को वक्त नहीं दे पा रहे किसान मज़दूर।
Q: पीछे मुड़कर देखने पर, क्या आपको लगता है कि यह संघर्ष सफल रहा है, और इसकी सफलता को आप किस तरह मापेंगे?
A: जिस शख़्स ने आज तक कभी अपना कोई फ़ैसला वापस नहीं लिया, जिसने नोटबंदी और कोविड के दौरान ग़लत फैसलों से हज़ारों लोगों की मौत के बावजूद अपनी गलती नहीं मानी, जिसने अपने कुछ क्रोनी दोस्तों के लिए बाकी बिज़नेस हाउसेज़ पर भी अंकुश लगाए—उस शख़्स को किसानों ने झुकाया था। इससे हमें हौसला मिलता है कि अगर हम एकजुट हैं, तो कोई ताक़त हमसे बड़ी नहीं हो सकती। यही हमारी जीत है।
अभी सरकार वही तीन काले क़ानून (और उससे भी बदतर क़ानून) अप्रत्यक्ष रूप से दोबारा लागू करने का प्रयास कर रही है, लेकिन यह चल रहा आंदोलन उसकी राह में रोड़ा बना हुआ है। यही हमारी जीत है।
किसी भी तरह किसानों की ज़मीने छीन कर कॉर्पोरेट को देने की सरकारी कवायद को हम धीमी कर सके हैं। नई large scale acquisitions पर रोक है। यह हमारी जीत है।
हर राजनीतिक पार्टी कॉरपोरेट चंदे से चल रही है। विपक्ष भी समय-समय पर सिर्फ किसान मुद्दों पर दिखावटी समर्थन (लिप सर्विस) कर रहा है। इसके बावजूद हमारी बात पूरे देश में पहुंच रही है। इस बार दक्षिणी राजस्थान, उत्तरी मध्य प्रदेश/गुजरात, तमिलनाडु और केरल में हमारे समर्थन में ट्रैक्टर मार्च निकाले गए और सरकारों को ज्ञापन सौंपे गए। यही हमारी जीत है।
सबसे बड़ी जीत यह है कि हम तमाम चुनौतियों के बावजूद अपनी बात निचले से निचले स्तर तक पहुंचाने में कामयाब हो रहे हैं।
जो पिछले आंदोलन के पुरोधा थे, जैसे SKM (अखिल भारतीय) और इसके नेता राजेवाल साहब, टिकैत साहब, कम्युनिस्ट, उग्रहान साहब, वे अब तक इस किसान आंदोलन 2 से नहीं जुड़े थे। लेकिन अब उनकी और हमारी एकता “सांझी कॉल/प्रोटेस्ट” तक आ गई है और जल्द ही पब्लिक के प्रेशर से सम्पूर्ण एकता में परिवर्तित होगी, यह भी हमारी जीत है।
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