
‘रील कल्चर के फेर में कहीं हमारे बच्चे असल बचपन का मजा खो तो नहीं रहे?’
विनी सोनी, दो छोटे बच्चों की माँ, अपने अनुभवों के आधार पर बच्चों की परवरिश और उन पर सोशल मीडिया के पड़ने वाले असर के बारे में अपने विचार साझा कर रही हैं।
दो बच्चों की माँ— पहला जो सात साल का जिज्ञासु बच्चा है और दूसरा तीन साल का जो उसके हर काम की नकल करता है — होने के नाते मैं अक्सर सोचती हूँ कि इस “रील्स” के ज़माने में बचपन कितना बदल गया है।पहले बचपन का मतलब होता था घुटनों पर चोट लगना, सोने से पहले की कहानियाँ और बेवकूफ़ी भरी हँसी-मज़ाक।
अब सब कुछ कैमरे के कोण, बार-बार दोहराए गए शॉट और चल रहे गानों पर टिक गया है। ऐसा लगता है जैसे बचपन अब अजनबियों के लिए दिखाया जा रहा है।
सोशल मीडिया पर नजर डालिए — एक छोटा बच्चा तमन्ना भाटिया के ‘आज की रात’ गाने पर नाचते हुए वीडियो को देखकर आश्चर्य से देखता रह गया, और वह वीडियो लाखों बार देखा गया। असम की एक लड़की साइकिल चलाते हुए किशोर कुमार का गाना माय नेम इज़ एंथनी गोंज़ाल्विस गाते हुए वायरल हो गई। एक और वीडियो में बेंगलुरु की एक रूसी लड़की अपनी भारतीय दोस्त के साथ कन्नड़ कविता गा रही थी — यह दृश्य प्यारा था और तेजी से फैल गया।
ऐसे वीडियो मन को छूने वाले लगते हैं।
लेकिन कुछ वीडियो चिंताजनक भी हैं। मसलन उत्तर प्रदेश में कुछ बच्चों ने 15 फुट लंबे अजगर को तीन किलोमीटर तक उठाकर ले जाते हुए वीडियो बनाया। लोगों ने खूब देखा, पर किसी ने नहीं सोचा कि यह कितना खतरनाक था। एक पिता-बेटी की जोड़ी ने बॉलीवुड सीन दोहराया — देखने में प्यारा लगा, लेकिन सोचिए, उस “परफेक्ट रील” के लिए बच्चों से कितनी बार दोहराने, पोज देने और दबाव सहने को कहा गया होगा?
एक रील सिर्फ 15 सेकंड की होती है, पर उसका असर बच्चे के दिलो दिमाग पर बहुत लंबे समय तक रह सकता है। और यह असर सिर्फ स्क्रीन तक सीमित नहीं रहता। कुछ रोजपहले मेरा बड़ा बेटा घर आया और बोला, “माँ, ट्रेंडिंग रील क्या होती है? मैं भी क्यों नहीं बनाता जैसे मेरे दोस्त बनाते हैं?”
उसका कोई सोशल मीडिया अकाउंट भी नहीं है, पर फिर भी उसे “कूल” क्या है — यह समाज पहले से सिखा रहा है। तभी मुझे एहसास हुआ — क्या हम बच्चों को खेलने, खोजने और कल्पना करने दे रहे हैं या सिर्फ उन्हें एक अनजान दर्शक के लिए प्रदर्शन करना सिखा रहे हैं?
इसका खतरा दो तरह का है: पहला, शारीरिक — जब बच्चों को असुरक्षित स्टंट या चुनौतियाँ करने के लिए उकसाया जाता है। दूसरा, भावनात्मक — जब वे अपने मज़े या अपनी क्षमता को “लाइक्स” और “कॉमेंट्स” में मापने लगते हैं।
अब जरा सोचिये ऐसे वक़्त में, हम क्या कर सकते हैं?
पहला, रिकॉर्ड करने से पहले ठहरिए — निश्चित कीजिये कि क्या यह सुरक्षित है, सम्मानजनक है, और बच्चे के हित में है या नहीं। दूसरा, बच्चे से अनुमति लीजिए — भले वह छोटा ही क्यों न हो। अगर मेरा बेटा “नहीं” कहता है, तो मैं उसकी इच्छा का सम्मान करना चाहिए। तीसरा, याद रखिए — रील कुछ दिनों में मिट जाती है, पर हम जो सीख अपने बच्चों को देते हैं — आत्म-सम्मान, निजता और आत्मविश्वास की — वह जीवनभर रहती है।
मैं यादों को सँजोने के खिलाफ नहीं हूँ। मुझे अपने बच्चों की मस्तीभरी हरकतें और भाई-बहन के आलिंगन बहुत प्यारे लगते हैं। लेकिन हर पल दुनिया को दिखाने की ज़रूरत नहीं। कुछ पल सिर्फ हमारे अपने होते हैं, और जब वे हमारे पास रहते हैं, तब वे और भी खास बन जाते हैं।
रील बनाने और उनको सोशल मीडिया पर डालने से पहले माता-पिता को अपने आप से तीन सवाल पूछने चाहिए”
1.क्या यह सुरक्षित है, या मैं केवल कुछ “व्यूज़” के लिए अपने बच्चे को खतरे में डाल रहा हूँ?
2.क्या यह सम्मानजनक है — क्या मेरा बच्चा बड़ा होकर यह देखकर गर्व करेगा या शर्मिंदा होगा?
3.क्या यह ज़रूरी है — क्या सच में इसे सबके साथ बाँटना चाहिए या यह पल सिर्फ परिवार के बीच रहना बेहतर है?
आख़िर में सवाल यही है: क्या हम आत्मविश्वासी बच्चे बड़ा रहे हैं या “लाइक्स” के पीछे भागने वाले कलाकार?
शायद सबसे अच्छा “ट्रेंड” यही होगा कि हम बच्चों को बिना फ़िल्टर वाला, सच्चा बचपन जीने दें — बिना किसी रील के।